Saturday, August 13, 2011

Rin Mukti Mantra


ऋण - मुक्ति -  मन्त्र 
आज के युग में जब सभी व्यक्ति भोग - विलास और ऐश्वर्ये के पीछे भाग रहे हैं तो उस ऐश्वेर्ये के लिए पैसे चाहिए और पैसे या कर्ज बैंक दे देता है। परन्तु वह ऋण चुकाना व्यक्ति के लिए हिमालय से भी बड़ा हो जाता है और ऋण है की सुरसा के मुख की तरह बड़ता ही चला जाता है यदि आप ऋण से परेशान हैं तो यह भैरव मंत्र कीजिये और अपने ऋण से मुक्त हो जाइये।  
 विधि :- शुक्ल पक्ष के रविवार को जब पुष्य या हस्त नक्षत्र हो उस दिन से  भैरव मन्त्र का  जाप प्रारभं करें और प्रतिदिन १२ माला जो १०८ मनकों की हो २१ दिन तक लगातार करें। स्मरण रहे माला जिस समय पर शुरू करें प्रतिदिन उसी समय पर करे नहीं तो फल की प्राप्ति नहीं होती है किसी भी प्रकार की अशुद्धि नहीं होनी चाहिए। प्रत्येक रविवार और मंगलवार को छोटी-कन्याओं को मीठा भोजन कराये। अति -शीघ्र ऋण से मुक्ति मिलेगी और व्यापार में भी वृद्धि होगी। 
  मंत्र - " ॐ ऐं  क्लीं ह्रीं भम भैरवाय मम  ऋणविमोचनाय मह्यं महाधनप्रदाय क्लीं स्वाहा ।  

Wednesday, August 10, 2011

KALSARP YOG - A CURSE or A BOON

कालसर्प योग
ज्योतिष  शास्त्र में विभिन्न प्रकार के योगों का वर्णन है  परन्तु जितना भयभीत कर देने वाला योग कालसर्प योग है उतना कोई नहीं है कालसर्प योग की कल्पना मात्र से ही व्यक्ति डर जाता है और ना जाने कितनी ही आशंकाओ से भयभीत हो जाता है ज्योतिष शास्त्र में सामान्यतया इस योग को अशुभ अवम नेष्ट मन जाता है पराशर,गर्गाचार्य,भृगु आदि आचार्यों ने इस योग को मान्यता दी है
कालसर्प योग बारह प्रकार के हैं :- १ अनंत कालसर्प योग २ कुलिक कालसर्पयोग ३ वासुकी कालसर्प योग ४ शंखपाल कालसर्प योग ५ पदम कालसर्प योग ६ महापद्म कालसर्प योग ७ तक्षक कालसर्प योग ८ कर्कट कालसर्प योग ९ शंखचुड कालसर्प योग १० घातक कालसर्प योग ११ विषधर कालसर्प योग १२ शेषनाग कालसर्प योग
यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि कालसर्पयोग का निर्माण जभी होता है जब सभी ग्रह राहू और केतु के मध्य में स्थित हो
उपरोलिखित योगों की परिभाषा एवम संक्षिप्त व्याख्या व् फल इस प्रकार से है
. अन्नत कालसर्प योग :- जब राहू और केतु पहले और सातवें भाव में हों तथा सभी शेष  ग्रह इन दो ग्रहों  के मध्य में हों तो अनंत कालसर्प योग बनता है यह योग व्यक्ति के जीवन को संघर्षपूर्ण , स्वास्थ्य  तथा पारिवारिक स्थिति को कलहपूर्ण तथा विशेषतया रोगों को बड़ाता है
. कुलिक कालसर्प योग :-  जब राहू और केतु दुसरे और आठवें भाव में हो तथा समस्त ग्रह इन सो ग्रहों के बीच हो तो कुलिक नामक कालसर्प योग बनता है यह योग धन, स्वास्थ्य , परिवार , एवम रोगों से व्यक्ति को परेशान रखता है विशेषतया धनबाधा, अपयश  देता है
. वासुकी कालसर्पयोग :- जब राहू और केतु तीसरे और नवम भाव में हो तो इस योग का निर्माण होता है यह योग जातक के छोटे भाई व् बहनों को परेशनी देता है तथा ऐसा व्यक्ति धर्म विरुद्ध रहता है ऐसा जातक अत्यधिक उत्साही और पराक्रम के कारण अपने विरुद्ध वातावरण का निर्माण कर लेता है
. शंखपाल कालसर्पयोग :- जब राहू और केतु चतुर्थ एवम दशम भाव में स्थित हो तो शंखपाल कालसर्पयोग का निर्माण होता है इस योग में विद्या में बाधा , अपयश , कर्मक्षेत्र में मन के अनुकूल सफलता नही मिलती है, माता-पिता को कष्ट , वाहन से परेशानी होती है इस भाव से माता -पिता की और से परेशानी तथा कार्यक्षेत्र में मनचाही सफलता प्राप्त नहीं होती
. पदम कालसर्पयोग :- पंचम और एकादश भाव में राहू और केतु इस योग का निर्माण करते हैं इस योग के कारण विद्या में बाधा, सन्तान  को कष्ट, सन्तान प्राप्ति में विलम्ब या पुत्र शोक होता है विशेष रूप से स्त्री को योनी रोग, पेट में गैस तथा विवाह के भंग होने के प्रबल संभवाना होती है
६ महापद्म कालसर्पयोग:- राहू और केतु षष्ट और बारहवें भाव में इस योग का निर्माण करते हैं इस योग के कारण जातक के पिता को अपने कार्य में लगातार बाधाएँ आती हैं व्यापार और दुसरे कार्य में हानि होती है चरित्र की महता ऐसे जातक के लिए कोई मूल्य नहीं रखती है यह योग जातक को राजा से रंक बना देता है तथा उसकी हर जगह हर होती है
. तक्षक कालसर्पयोग :- जब राहू सातवें और केतु प्रथम भाव में हो तो इस योग कस निर्माण होता है इस योग के कारण स्वास्थ्य हानि , धनहानि , पति-पत्नी में प्रेम का अभाव तथा तनावपूर्ण वैवाहिक स्थिति, विजातिये विवाह का योग, जुआ एवम सट्टे का शोकीन, आदि इसके कुफल है
. कर्कट कालसर्पयोग :- जब राहू और केतु अष्टम और केतु दुसरे भाव में हो तो इस योग का निर्माण होता है धनहानि, व्यापार में हानि , पदच्युति, दुर्घटना, चोट, बीमारी और मुकदमें में परेशानी होती है अनेकों कष्टों से जातक पूरी  तरह से असंतुष्ट रहता है
. शंखचुड कालसर्पयोग :- जब राहू और केतु नवम और तीसरे भाव में हो तो इस योग का निर्माण होता है यह योग भाग्य भाव तथा पराक्रम भाव में घटित होता है इसलिए इन भावों को प्रभावित  करता है तथा भाग्य-हानि ,धर्महानि इसके मुख्य कुफल हैं
. शंखचुड कालसर्पयोग :- जब राहू और केतु नवम और तीसरे भाव में हो तो इस योग का निर्माण होता है यह योग भाग्य भाव तथा पराक्रम भाव में घटित होता है इसलिए इन भावों को प्रभावित  करता है तथा भाग्य-हानि ,धर्महानि इसके मुख्य कुफल हैं
१०. घातक कालसर्पयोग :- राहू और केतु जब दशम और चतुर्थ भाव में हो तो इस योग का निर्माण होता है इस योग के फलस्वरूप नोकरी और व्यापार में बाधा, पारावारिक संम्बंध कलहपूर्ण, इच्छित समय पर सहयोग नहीं मिलता इस योग में विदेश जाने के अवसर प्राप्त होते है
११. विषधर कालसर्पयोग :-  राहू और केतु जब ग्यारवे और पांचवे भाव में हो तो इस योग का निर्माण होता है रात्रि में नीद का ना आना, सिर में पीड़ा, अर्धविक्षिप्त सी अवस्था, संतान की और से कोई भी सहयोग ना मिलना तथा सम्पूर्ण जीवन संघर्षमय होता है
१२. शेषनाग कालसर्पयोग :- राहू और केतु जब बारहवें और छ्टे भाव में हो तो इस योग का निर्माण होता है इस योग के परिणामस्वरूप शत्रुओ की अधिकता, मुकदमें और झगड़े, अधिक खर्च इस योग के अशुभ परिणाम है
राहू और केतु की अशुभता जातक के गोचर एवम कुंडली के भावो के अनुरूप कम या ज्यादा होती है। यदि गोचर में राहू और केतु की अशुभता बलवती है और कालसर्पयोग को अधिक बलवान बना रहे हो या राहू और केतु नवान्श  कुण्डली मे  वर्गोतमी हो तो योग अधिक प्रतिकूल फल देने वाला होता है । ज्योतिष शास्त्र में कालसर्प योग के निदान या उपायों के रूप में मन्त्र , ओषधि , दान , स्नान का वर्णन हैऔर यही कालसर्पयोग शांति करवाने के बाद उत्कृष्ट जीवन प्रदान करता है जैसे पंडित जवाहर लाल नेहरु , धीरुभाई अम्बानी आदि अत: कालसर्प योग से भयभीत होने की इतनी आवश्यकता नहीं है भगवान शिव महामृत्युअञ्जय मन्त्र का निरन्तर जप जातक को जीवन में सफलता के साथ-साथ गुणों में भी वृद्धि करता है
" ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं उरवरुकमिव बन्धनानमृत्योर्मुक्षिय मामृतात "    "ॐ हों जुं सः ॐ भूर्भवः स्वः ॐ "  या आप शिव के पञ्चाक्षरी मन्त्र का जप भी कर सकते है " ॐ नमः शिवायः" इस प्रकार से राहु के मन्त्र के जपने से भी कालसर्पयोग के दुष्परिणामो से मुक्ति मिलती है " ॐ राहुवे नमः" यह मन्त्र ७२००० जप करने का विधान है
रुद्राअष्टाध्यी का नित्य-प्रतिदिन पाठ करें एवम भगवान आशुतोष का कम से कम सोलह बार रुद्राभिषेक नमक-चमक से करवाने का विधान है।परन्तु यह सब किसी विद्वान ब्राहमण के द्वारा ही करवाएं अन्यथा इन सबका फल नही मिलता है।
जातक को अपनी मध्यमा अंगुली में सर्प के आकार की एक अंगूठी में आगे गोमेद एवम पूंछ की और लहसुनिया लगवा कर धारण करना चाहिए। परन्तु गोमेद एवम लहसुनिया कितने वजन का हो यह सब ग्रहों के अंशो पर निर्भर करता है अत: किसे भी विद्वान देवज्ञ से परामर्श करें।
आप की टिप्पणी लेख के लिए महत्वपूर्ण है इनसे मुझे प्रोत्साहन मिलेगा और मैं आपके लिए ओर अच्छा लिखने का प्रयत्न करूंगा ।
धन्यवाद,
प्रमोद पंडित

Vastu-Shastra & Health

वास्तुशास्त्र और स्वास्थ्य
वास्तु शास्त्र के प्राचीन ग्रंथो जैसे विश्वकर्मा पुराण, विश्वकर्मा प्रकाश, वास्तु प्रदीप , वास्तु रतन ,वास्तु मुक्तावली , बृहद सहिंता ,मत्स्य पुराण, अथर्व वेद के उप-वेद स्थापत्य वेद में वास्तु सम्बन्धी ज्ञान का वर्णन विस्तार पूर्वक मिलता है I वास्तु शास्त्र गृह निर्माण की वह कला हैजिसे अपना कर मनुष्य अपना कल्याण ही नहीं अपितु अपनी आने वाली संतान का भी कल्याण कर सकता है। वास्तु शास्त्र का मूल आधार पञ्च महाभूत है जो इस प्रकार है -१ पृथ्वी २. जल ३. अग्नि ४ .वायु ५ आकाश वास्तुशास्त्र इन पंच महाभूतों के आपसी सामजस्य की कला है अखिल विश्व इन्ही पञ्च महाभूतो के सामजस्य का परिणाम है पूरे विश्व में कोई भी ऐसी वस्तु नही है,जहाँ ये पञ्च महाभूत ना हों I इसीलिए हमारे ऋषि - मुनियों ने मानव के उत्थान के लिए अद्भुत शास्त्र की रचना की है वास्तु शास्त्र के कुछ नियमो के पालन से ही व्यक्ति अपने गृह में स्वास्थ्य, समृद्धि एवम खुशहाली को पाने में सक्षम हो जाता है। एक भवन निर्माण करने वाला अभियंता सुंदर और मजबूत भवन का निर्माण तो कर सकता है, परन्तु उसमे रहने वाले व्यक्ति के सुख और समृद्धि की कोई भी गारंटी दे पाना असभंव है,लेकिन वास्तु शास्त्र इन सबकी गारंटी देता है
उतर दिशा- यदि आपके घर की उतर दिशा ऊँची है तो घर के व्यक्ति गुर्दे सम्बन्धी रोगों से, कान के रोगों से , घुटने सम्बन्धी रोगों से पीड़ित हो जाते है कुंडली का चतुर्थ भाव इस स्थान का कारक है उतर दिशा ऊँची होने से घर की औरते बीमार रहती हैं  यदि आपके घर की उतर दिशा ऊँची है तो घर के व्यक्ति गुर्दे सम्बन्धी रोगों से, कान के रोगों से , घुटने सम्बन्धी रोगों से पीड़ित हो जाते है कुंडली का चतुर्थ भाव इस स्थान का कारक है उतर दिशा ऊँची होने से घर की औरते बीमार रहती हैं                                                                                                                                       दक्षिण दिशा - यदि घर की दक्षिण दिशा में कोई भी छिद्र हो तो यह घर के सभी सदस्यों के लिए अशुभ होता है घर के दक्षिण में पानी की निकासी, जल का भंडारण, वहां कूड़े का रखना या घर का कबाड़ा रखना अशुभ होता है तथा गृह स्वामी को दिल की बीमारी, उच्च रक्त -चाप , संधि- रोग, रक्त-अल्प्त्ता, पाण्डु-रोग, नेत्र - रोग एवम पेट के रोग हो जाते है यदि दक्षिण दिशा में घर की दीवारें उतर की अपेक्षा नीची होगीं तो गृह स्वामी को हृदय सम्बन्धी रोग होते हैं गृह का दक्षिणी भाग यदि नीचा होता है या उतर की अपेक्षा अधिक खाली होता है तो घर की सित्रियों सदैव भयानक रोगों से ग्रस्त रहती हैं दक्षिण दिशा का स्वामी यम होता है और प्रतिनिधि मंगल ग्रह है इसलिए घर को बनाते समय दक्षिण दिशा की ओर गृह स्वामी को ज्यादा ध्यान देना चाहिए                               
पूर्व दिशा - पूर्व दिशा का ऊँचा होना गृह स्वामी के लिए अशुभ होता है एवम गरीबी लेकर आता है उसकी सन्तान शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ जाती है और उसे एवम उसके परिवार को पेट एवम लीवर की बिमारियों से ग्रस्त रहना पड़ता है पूर्व दिशा का ऊँचा होना और पश्चिम की ओर झुकाव नेत्र के रोगों को निमन्त्रण देना है ओर कभी -२ तो ऐसा व्यक्ति लकवे से भी पीड़ित होते है यदि पूर्व की दीवार पश्चिम की दीवार की अपेक्षा ऊँची होगी तो उस घर में संतान की हानि होने की प्रबल संभावना होती है पूर्व में शोचालय घर की औरतों को रोगों से ग्रस्त रखता है घर के पश्चमी भाग यदि नीचा है तो गृह स्वामी की अकाल-मृत्यु हो जाती है                                                                              
पश्चिम दिशा - यदि किसी घर का पश्चिमी भाग नीचा होगा तो फेफड़े,मुंह,चमड़ी के रोगों के  होने की सम्भावना होती है तथा उस घर के पुरुष सदस्यों को रोगों से ग्रस्त रहना पड़ता है यदि पश्चमी भाग में पानी की निकासी पश्चमी भाग की ओर से ही है तो उस घर के पुरुष असाध्य रोगों से पीड़ित हो जाते हैं पश्चिमी दिशा में रसोई का स्थान पित की अधिकता करता है 
उपाय- उतर दिशा की ढाल गृह स्वामी को उतम स्वास्थ्य प्रदान करती है और आयु में वृद्धि करती है गृह स्वामी को बुधवार के व्रत रखने चाहियें एवम बुध यंत्र की स्थापना करनी चाहिए घर की दीवारों को हरे रंग से रंगना चाहिए
उपाय- (दक्षिण दिशा) गृह का निर्माण  करते समयदक्षिण दिशा को  उन्नत करना चाहिए और दीवारें उतर की अपेक्षा ऊँची रखनी चाहियें तो घर का हर सदस्य स्वस्थ, सम्पन्न एवम समृद्ध होगा हनुमान जी की उपासना करें घर के पानी को सदैव इशान कोण से ही निकालें तो घर के अंदर हर प्रकार का सुख और समृद्धि स्वयं ही उपलब्ध हो जाएगी यदि आपके घर का मुख्य द्वार दक्षिण दिशा में है तो घर के के द्वार पर दक्षिणावर्ती सुंड वाले गणपति की विधिवत स्थापना करवाएं
 उपाय- (पूर्व दिशा) इस दिशा में जल का होना शुभ होता है प्रयत्न करें कि पानी की टोंटी पूर्व दिशा में ही हो पूर्व दिशा में सूर्य यंत्र की स्थापना करवाएं घर का पूर्वी भाग पश्चमी भाग से नीचा होना चाहिए तो वंश वृद्धि,यश,मान-सन्मान तथा लक्ष्मी की प्राप्ति स्वयं होने लगेगी
उपाय- (पश्चमी दिशा ) पश्चमी दिशा को पूर्व की अपेक्षा ऊँचा रखें पश्चमी दिशा की और वृक्ष लगायें और शनिवार के उपवास करें 
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धन्यवाद,
प्रमोद पंडित

Profession & Your Destiny

पाण्डित्यं शोभते नैव न शोभन्ते गुणा नरे। शीलत्वं नैव शोभते महालक्ष्मी त्वया बिना॥ 
तावद्विराजते रूपं तावचछिलमं विराजते ।विराजते रूपं तावचछिलमं विराजते तावद् गुणा नराणां यावल्लक्ष्मिःप्रसीदति॥ लक्ष्मी त्वयाल्ङ्ग्कृता मानवा ये,पापैर्विमुक्ता नृप लोक्मन्या।
गुणैर्विहिना गुणिनो भवन्ति, दु:शीलिनः शीलवतां वरिष्ठाः॥
लक्ष्मीर्भुष्य्ते रूपं लक्ष्मीर्भुष्य्ते कुलम्।
लक्ष्मीर्भुष्य्ते विद्यां सर्वालक्ष्मीर्विषिष्य्ते॥
लक्ष्मी के आभाव में विद्वता,पांडित्य,गुण तथा शील्युक्त व्यक्ति भी प्रभावरहित एवम आभाविहीन हो जाते हैं। लक्ष्मी की कृपा होने से व्यक्तिओं में रूप,शील और गुण विद्यमान होते हैं।जिन पर लक्ष्मी की कृपा होती है, वे समस्त पापों से मुक्त होकर राजा द्वारा प्रशंसनीय होते हैं तथा समाज में पूजनीय होते हैं। भगवती लक्ष्मी की अनुकम्पा से सोंदर्य,शिक्षा तथा कुल की गरिमा बड़ती है। तथा गुणहीन,शीलविहीन व्यक्ति भी गुणवान तथा शीलवान समझे जाते हैं। इसीलिए मारकंडे द्वारा रचित " दुर्गा सप्तशती " में ऋषि मारकंडे ने कहा है " या देवी सर्वभूतेषु वृति रूपेण संस्थिता । नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नम:॥ हमारे ऋषियों ने वृति या आजीविका या नोकरी को देवी का स्थान दिया है इसीलिए किसी भी व्यक्ति के जीवन में आजीविका या नोकरी का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है, परन्तु कई बार बुद्धिमान व्यक्तियों को भी आजीविका या नोकरी के लिए दर-दर भटकते देखा है। दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति भी हैं,जो किंचित मात्र प्रयास से ही बड़े-बड़े पदों को सुशोभित करते हैं तो मन-मस्तिष्क में एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से कौन्धता है कि ऐसा क्यूँ हुआ? कैसे हुआ? परन्तु एक साधारण मनुष्य के पास इस प्रश्न का कोई समाधान नहीं है लेकिन हमारे ऋषियों ने इस रहस्य को ज्योतिष-शास्त्र के द्वारा जान लिया और व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में होने वाली शंकाओ का निराकरण किया।
ज्योतिष-शास्त्र के महान आचार्य वराहमिहिर और अन्य ज्योतिष-शास्त्रकार आजीविका या नोकरी के प्रश्न पर विचार करते समय दशम भाव को ही मुख्य मानते हैं। इन आचार्यों के अनुसार जो ग्रह दशम भाव में होगा जातक की आजीविका या नोकरी उसी ग्रह के अनुसार निर्धारित होती है । यह स्थान लग्न से, सूर्य से तथा चन्द्र से भी हो सकता है इन ग्रहों से दशम स्थान में जिस ग्रह की स्थिति अधिक बलवान होगी जातक की आजीविका या नोकरी उसी ग्रह के गुण, स्वाभाव के अनुसार होगी। कुछ ज्योतिषाचार्यों के अनुसार व्यवसाय का विचार दशम भाव का स्वामी जिस नवांश में स्थित हो उस नवांश के स्वामी के अनुसार उस की आजीविका होती है।
ज्योतिष- शास्त्र के प्राचीन ग्रन्थ नारद पुराण, मानसागरी, बृहतजातक, बृहतपराशर आदि अनेकों ग्रंथो में लग्न को ही आजीविका या नोकरी से गहरा सम्बन्ध माना गया है। नारद पुराण में जन्म लग्न और चन्द्र लग्न से दशम स्थान में स्थित ग्रह के गुण धर्म के अनुसार आजीविका या नोकरी का विचार करना चाहिए परन्तु लग्न, चन्द्र लग्न तथा सूर्य लग्न से दशम भाव के स्वामी जिस नवांश में होगें उस नवांश के स्वामी से उस जातक की आजीविका या नोकरी का विचार करना चाहिए। परन्तु ये ध्यान रखने योग्य बात है कि यदि नवांश का का स्वामी बलवान होगा तो धन प्राप्त करने में आसानी होगी और यदि नवांश का स्वामी दुर्बल होगा तो धन मिलने में कठिनाई होगी।
मानसागरी के अनुसार लग्न या चन्द्र लग्न से दसवें स्थान में सूर्य हो तो ऐसे जातक को कई प्रकार के व्यवसाय से लाभ प्राप्त होता है1.परन्तु यदि सूर्य दशम स्थान में शत्रु ग्रह के साथ हो तो ऐसे जातक को अपने जीवन में कष्ट उठाने पड़ते हैं और उसे साधारण सी जीविका पर ही संतोष करना पड़ता है।
2. यदि लग्न या चन्द्र से दशम भाव में मंगल हो तो ऐसा जातक चोरी, हिंसा ( यहाँ चोरी या हिंसा से तात्पर्य सभी प्रकार की चोरियों से है तथा हिंसा से तात्पर्य सभी प्रकार की हिंसा से है) से धन प्राप्त करने में लगा रहता है। परन्तु यदि मंगल पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो या शुभ ग्रहों से संम्बंध हो तो जातक पुलिस या सेना या रसायन-शास्त्री या दवाई विक्रेता का कार्य करता है।
3.यदि लग्न या चन्द्र से दशम भाव में बुध ग्रह हो तो ऐसा व्यक्ति एकाउंटटेंट, लेखक या अध्यापक होता है।4. दशम भाव का गुरु जातक को अनेकों प्रकार से लाभ देता है ऐसा जातक ज्योतिष शास्त्र का प्रकांड विद्वान होता है।
5. दशम भाव का शुक्र जातक को अध्यापन , विधि या न्यायधीश यस विद्या के कार्य से जीविका देता है ।
6. दशम भाव का शनि जातक को चमड़े के व्यापार से आजीविका देता है।

LOVE MARRIAGE

लव मैरिज और उसके योग
सभी मनुष्यों  की जन्म कुंडली में बारह भाव, नौ ग्रह और बारह राशियाँ होती हैं। ये सभी ग्रह,राशियाँ एवम भाव, जातक के पूर्ण जीवन में अपना प्रभाव डालते हैं।जातक के जीवन का हर पल इनके द्वारा प्रभावित  होता है।मनुष्य द्वारा बनाये सभी रिश्ते-नाते इन्ही नौ ग्रहों द्वारा संचालित होते हैं।मनुष्य जन्म से ही अनेकों रिश्तों से बंधा होता है परन्तु कुछ रिश्ते वह स्वयं ही बनाने का प्रयत्न करता है जैसे भावी वर-वधु आदि।प्राचीन काल से ही भावी वर - वधु की कुंडली के मिलान की प्रथा भारतवर्ष में चिरकाल से ही प्रचलित है।परन्तु आज के आधुनिक समाज में युवक और युवतियां अपनी ही समझ से विवाह करने में विश्वाश करने लगे हैं और इसे प्रेम-विवाह की संज्ञा देते है।परन्तु क्या सभी प्रेम-विवाह सफल होते हैं ? इसलिए यदि जन्मकुंडली में प्रेम-विवाह के योग घटित ना हों तो ऐसे जातकों को प्रेम-विवाह असफल होते हैं। अत: प्रेम विवाह करने से पहले इन योगों को अपनी जन्म कुंडली में देख लें की जो विवाह आप करने जा रहें हैं कंही वह असफल विवाह सिद्ध ना हो और आपके जीवन को नर्क-तुल्य ना बना दे
१. यदि आपकी जन्म - कुंडली में पंचमेश और सप्तमेश का राशी परिवर्तन हो तो जातक का प्रेम-विवाह होता है ।
२. यदि द्वादश भाव का स्वामी पंचम भाव में बैठ जाये तो ऐसे जातक का दूसरा विवाह प्रेम-विवाह होता है।
३. यदि पंचम भाव का स्वामी द्वादश भाव में बैठ जाये  तो भी ऐसे जातक का दूसरा विवाह प्रेम-विवाह होता है ।
४. यदि द्वादश भाव और पंचम भाव के स्वामी का राशी परिवर्तन हो तो भी ऐसे जातक का प्रेम-विवाह होता है।
५. यदि जन्म कुंडली में पंचमेश सप्तम भाव में हो तो ऐसे जातक का प्रेम विवाह निश्चित होता है।
६. यदि सप्तम भाव का स्वामी पंचम भाव में हो तो भी जातक का प्रेम विवाह होता है।
७. यदि पंचमेश और सप्तमेश की युति किसी भी भाव में हो तो ऐसे जातक का प्रेम विवाह होता है।
८. यदि द्वादश भाव के स्वामी की युति सप्तमेश के साथ हो तो ऐसे जातक का दूसरा विवाह प्रेम-विवाह होता है।
९ पंचमेश,सप्तमेश और द्वाद्देश इन तीनो में से किसी भी दो की दृष्टि,युति,राशी परिवर्तन या स्वग्रही होने पर जातक के प्रेम विवाह की सम्भावना बढाता है।
विवाह को हिन्दू संस्कृति में एक पवित्र बंधन माना है अत: विवाह चाहे माता-पिता की इच्छा और धार्मिक संस्कारों और मर्यादाओं के अनुरूप हो या फिर प्रेम-विवाह कुंडली का मिलान अवश्य करा लेना चाहिए ताकि विवाह के पश्चात पति और पत्नी का बंधन अटूट रहे।
plz. write your comment about this article.
Thanks
Parmod Pandit

PROFESSION & BUSINESS AND PITR-DOSH

पितृ-दोष और आजीविका
ना जायते मिर्यते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा भूयः।
अजो नित्यः शाशवतोSयं पुराणो हन्यते हन्यमाने शरीरे    
” आत्मा किसी भी काल में न तो जन्म लेती है, न मरती है तथा ना यह नष्ट होती है यह अजन्मा,नित्य शाश्वत तथा पुरातन है देह का वध होने पर भी यह आत्मा का वध नहीं होता है “
वैदिक संस्कृति में आत्मा को अजन्मा ,नित्य और शाश्वत माना जाता है हिन्दू धर्म की मान्यताओ के अनुसार मृत्यु के बाद इस शरीर का नाश होता है परन्तु आत्मा का नहीं । यह विभिन्न योनियों में अपने कर्मों के अनुसार जन्मता हुआ दुःख और सुख भोगता रहता है। व्यक्ति अपने पिछले जन्मों में जो कर्म करता है उसे अगले जन्म में उसी प्रकार की योनी में जन्म लेना पड़ता है यही शाश्वत नियम है यही सनातन विज्ञान है। हमारे विभिन्न धर्म-ग्रन्थों में बार-२ इस का उल्लेख हुआ है परन्तु यह भी एक आश्चर्य ही है कि मनुष्य सब कुछ जानते हुए भी बुरे कर्मों को नहीं छोड़ता है। कोई भी व्यक्ति पिछले जन्मों में किस प्रकार के कार्य करता है यह उस व्यक्ति कि जन्म कुंडली बता देती है और पिछले जन्मों के पापों का उस कुंडली में विभिन्न दोषों से जाना जाता है उन दोषों में एक प्रबल दोष है - पितृ-दोष।
जिस जातक की कुंडली में पितृ-दोष होता है उस जातक को विभिन्न प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते है ऐसा जातक बहुत ही विषम परिस्थितियों में जीने को विवश हो जाता है। इस प्रकार के जातक का मन अशांत,गुप्त-चिंता से पीड़ित, विवाह-सम्बन्धी परेशानियाँ, स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियाँ, अपयश, कार्यों में विघ्न और अनेकों प्रकार की बाधाएँ ऐसे जातक के जीवन में आती रहती है। इसलिए जिस जातक के भी कुंडली में में इस प्रकार का दोष हो उसे इस दोष का निवारण अवश्य करा लेना चाहिए।
किसी भी जातक की जन्म कुंडली में जब सूर्य और राहू या सूर्य और शनि ग्रह प्रथम, दिवितीय, चतुर्थ्, पञ्चम, सप्तम, नवम या दशम भाव मे यह योग घटित हो तो जातक को पितृ दोष होता है। यह योग जातक की कुंडली में जिस भाव में होता है उस जातक को तदनुसार ही उसके फल मिलते हैं।
1.यदि जातक की कुंडली में यह योग प्रथम भाव में घटित होता है तो जातक को स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियाँ, मानसिक-परेशानियाँ, विवाह सुख में कमी बनी रहती है
2. यदि जातक के दुसरे भाव में यह योग घटी होता है तो जातक के परिवार में क्लेश, धन की कमी और आर्थिक रूप से ऐसा जातक सदैव उलझनों से ग्रसित रहता है।
3.यदि जातक की कुंडली के चतुर्थ भाव में पितृ दोष विद्यमान हो तो माता-पिता के सुख में कमी, मकान सम्बन्धी परेशानियाँ, घर की सित्रियाँ को स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियाँ सदैव बनी रहती है ।
4.यदि पितृ दोष किसी भी जातक की कुंडली में पांचवे भाव में घटित  हो रहा हो तो ऐसे जातक की विद्या में विघ्न , सन्तान के सुख में कमी , आर्थिक क्षेत्र में असफलताएँ , धन की कमी जातक को परेशान करती हैं ।
5.यदि किसी जातक के यह योग सप्तम भाव में घटित हो रहा हो तो ऐसे जातक के विवाह में बाधा और यदि विवाह हो भी जाए तो वैवाहिक सुख में कमी रहती है ऐसे जातक को व्यापार में अनेकों बार परेशानियों का सामना करना पड़ता है ।
6. यदि  पितृ दोष नवम भाव में हो भाग्य में कमी लता है उस जातक के बनते -२  कम बिगड़ जाते है और उस को आर्थिक क्षेत्र में असफलताओं  का साक्षात्कार करना पड़ता है , धन की सदैव कमी रहती है और जातक केवल अपने भाग्य को कोसता रहता है ।
7. यदि किसी जातक के पितृ दोष दशम भाव में घटित हो तो ऐसे जातक को सरकारी नोकरी नहीं मिलती , उसे हर कार्य में असफलताओं का मुख देखना पड़ता है ।

VAYAPAR VRIDDHI - YANTRA